झारखंड आंदोलन के शिल्पकार, शिबू सोरेन का निधन…देश ने खोया ज़मीनी जननायक.. प्रधानमंत्री ने भी जताया शोक

रांची/नई दिल्ली.. झारखंड मुक्ति मोर्चा यानि JMM के संस्थापक और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का दिल्ली में निधन हो गया। लंबे समय से बीमार चल रहे थे। पिछले दो महीने से गंगा राम अस्पताल में भर्ती थे। यह जानकारी उनके बेटे और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने दी।
हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा,
“आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए हैं। आज मैं शून्य हो गया हूँ।”
शिबू सोरेन, जिन्हें आमजन “दिशोम गुरुजी” के नाम से जानते थे, झारखंड के जन आंदोलन, आदिवासी अधिकारों और क्षेत्रीय स्वाभिमान के प्रतीक माने जाते हैं। उनका जीवन समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ बनने में बीता।
पीएम मोदी ने जताया शोक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिबू सोरेन के निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया है। उन्होंने एक्स पर लिखा:
“शिबू सोरेन जी एक ज़मीनी नेता थे, जिन्होंने जनता के प्रति अटूट समर्पण के साथ सार्वजनिक जीवन में ऊँचाइयों को छुआ। वह आदिवासी समुदाय, ग़रीबों और वंचितों के सशक्तिकरण के लिए विशेष रूप से समर्पित थे। उनके निधन से दुखी हूं। मेरी संवेदनाएं उनके परिवार और प्रशंसकों के साथ हैं।”
प्रधानमंत्री ने हेमंत सोरेन से फ़ोन पर बात कर शोक संवेदना भी व्यक्त की।
संघर्ष से नेतृत्व तक का सफर
शिबू सोरेन का जन्म झारखंड के संथाल आदिवासी समुदाय में हुआ था।उन्होंने 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य बिहार से अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर था।27 साल के संघर्ष के बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।वे तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने: 2005, 2008-09 और 2009-10 में। उन्होंने केंद्र की यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री के रूप में भी योगदान दिया।
दुमका लोकसभा सीट से उन्होंने सात बार जीत हासिल की, हालाँकि 2019 में वे बीजेपी के सुनील सोरेन से चुनाव हार गए थे। स्वास्थ्य कारणों से पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली थी।
राजनीति में विरासत
शिबू सोरेन ने केवल एक आंदोलन खड़ा नहीं किया, बल्कि एक नई राजनीतिक धारा की नींव रखी। आज उनके पुत्र हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं और पार्टी की बागडोर संभाल रहे हैं।
राष्ट्रीय राजनीति के लिए अपूरणीय क्षति
शिबू सोरेन का जाना सिर्फ झारखंड नहीं, पूरे देश के लिए एक युग का अंत है। वह उन विरले नेताओं में से थे जो संविधान, जंगल और जनजाति — तीनों को साथ लेकर चले।