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क्यों अशुभ नहीं…. शुभ पर्व है पितृ पक्ष..!

लेखक के पिता स्वर्गीय श्री कृष्णानंद वर्मा तत्कालीन सीपी एंड बरार / मध्य प्रदेश के कुछ गिने चुने उन वरिष्ठ अधिवक्ताओं में से थे, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीनियर एडवोकेट का पद प्रदत्त किया गया था। उनका व्यक्तिगत संबंध ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद, मुंगेर के स्वामी सत्यानंद, मथुरा / हरिद्वार के आचार्य श्री राम शर्मा एवं मदर टेरेसा से था।

इस वातावरण में रहते हुए लेखक के मन में यह विचार आया कि यदि ईश्वर के पश्चात माता-पिता ही सर्वाधिक सम्माननीय है और पितृपक्ष के दौरान उनका आगमन स्वर्ग से अपने घर में बताया गया है ,तब इस पखवाड़े में किसी भी नई वस्तु का क्रय, किसी शुभ कार्य की शुरुआत, विवाह की चर्चा, गृह प्रवेश आदि वर्जित क्यों है ? अपनी इस शंका के निवारण के लिए लेखक ने इस विषय के प्रकांड पंडित स्वर्गीय रमाकांत मिश्रा “शास्त्री” अधिवक्ता बिलासपुर से चर्चा की तब उनकी शंका का निवारण पंडित रमाकांत मिश्रा जी ने निम्न अनुसार किया-

श्राद्ध पक्ष होने के कारण लोगों ने इस परम पुनीत पितृपक्ष को केवल श्राद्ध पक्ष होने का मन में अनुचित धारणा बनाकर शुभ कर्मों के लिए अयोग्य मान लिया है। निराधार रूप से लोग यह पितृपक्ष है, कोई शुभ काम नहीं होगा ऐसा कहते हैं ।किंतु यह न तो पौराणिक धारणा है और ना विद्वान लोगों का ऐसा मत है। यह पक्ष जहां एक और पितरों का पितरों के श्राद्ध के लिए माना है, वहीं इसी पक्ष में कपिल षष्ठी, चंद्र षष्ठी और अष्टमी को महालक्ष्मी जैसे पुनीत पर्व मनाए जाते हैं  ।

“पुत्र सौभाग्य राज्यायुः प्राप्यते।

यदुपाशनात् असिन कृष्णा अष्टाम्याम कमला मर्चये नरः ।।”

(पुराण समुच्चय में )

इसी पक्ष की षष्ठी  तिथि को भगवान सूर्य की प्रतिमा के साथ कपिल नाम से षष्ठी की पूजा करें। जिससे मनुष्य की आयु, धनश्री समृद्धि की वृद्धि होती है।

“दिव्यमूर्तिरजगत चक्षु द्वाद्शात्मः दिवाकरः ।

कपिला सैतो देवो मम् मुक्तिम प्रयच्छते ।।“

इस तरह जिस पक्ष में देवी, देवता, महालक्ष्मी आदि की पूजा का पर्व होता हो, उस पक्ष को शुभ कर्म के लिए वर्जित कैसे कहा जा सकता है। यह भ्रांति समाज में निराधार रूप से फैलाई गई है। अतः सुविज्ञ जनों को शुभ कर्मों के लिए भी इस पक्ष को उचित मानना चाहिए।

पितृपक्ष क्या है –  आश्विन का कृष्ण पक्ष पितृपक्ष अर्थात महालय कहलाता है। देवताओं के स्थान को मंदिर, देवियों के स्थान को प्रसाद- भवन और पितरों के निवास, स्थापना को आलय कहते हैं। यद्यपि तीनों समानार्थी हैं किंतु वर्गीकरण कर दिया गया। हम पितृ यज्ञ करते हैं। हमारे घरों में पितृ अर्चना होते हैं उसे महा+आलय – महालय कहते हैं । आश्विन कृष्ण पक्ष में  रखना एक व्यवस्था है। देवताओं की पूजा तिथियां मास आदि भिन्न है। कृष्ण जन्माष्टमी भाद्रपद में, दुर्गा पूजन आश्विन शुक्ल- चैत्र शुक्ल पक्ष में , देवसयनी, देवउठनी, रामनवमी, अक्षय तृतीया आदि अलग-अलग होते हैं। इन सब से हटकर 15 दिनों को लगातार पितृपक्ष कहकर पितृ यज्ञ का एक पुनीत पक्ष ऋषियों ने बना दिया है।

किंतु दुर्भाग्य है कि लोगों की धारणा इस समय शुभ कर्म न करने की ओर मोड़ दी गई। इसमें कपड़े, जूते , वाहन, गृह आदि खरीदने  में अशुभ होने की आशंका करते हैं   यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।

पुत्रानायुस्तथारोग्य नैश्वर्यमतुलं तथा ।।

प्राप्नोति पंचमे दत्वा श्राद्धं कामान् सुपुष्कलान ।।

( जावालि स्मृति नि.स.) )

पुत्र, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, अतुलनीय धन को पितृगण उन्हें प्रदान करते हैं, जो पितृपक्ष में प्रतिदिन तर्पण और श्राद्ध करते हैं । श्राद्धों के अनेक भेद हैं । श्राद्ध के बिना यज्ञ आदि पूर्ण नहीं होते ।

यज्ञो द्वाहा प्रतिष्ठांसु मेखला बंध मोक्षयोः।।

पुत्र जन्म वृषोत्सर्गे,वृद्धि श्रांद्धं समाचरेत।।

( विष्णु पुराण )

जन्मन्यथोपनयने विवाहे पुत्रकस्य च ।

पितृन्नान्दी मुखान्नाम तर्पयेद विधिपूर्वकम्।

( गोमिल )

राज्याभिषेके बालान्न भोजने वृद्धि संज्ञकान

वनस्थाद्याश्रमं गच्छन पूर्वेधूः सद्य एव वा ।

पितृन पूर्वोक्त विधिना तर्पयेत कर्मसिद्धये।।

( निर्णय सिंधु )

राजा का अभिषेक, अन्नप्राशन, यज्ञ, मंदिर आदि की प्रतिष्ठा इनमें श्रद्धा और तर्पण करने से काम की सिद्धि होती है। पितृपक्ष में इन शुभ कर्मों को करने का कोई निषेध नहीं है किंतु कुछ काम जैसे विवाह, गृह प्रवेश, मंदिर प्रतिष्ठा आदि सूर्य के दक्षिणायन और भगवान के शयन के कारण नहीं किए जाते। इसमें पितृपक्ष का दोष नहीं है और ना ही उसके कारण वर्जित है। पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध न करने से परिवार में अनेक प्रकार के कष्ट रोग शोक आदि होते हैं ।उसका कारण है आषाढ़ की पूर्णिमा से पांचवा पक्ष अर्थात पितृपक्ष में पिता अपने पुत्र पौत्रादि से श्राद्ध और तर्पण की इच्छा रखते हैं।

आषाढ़ी मवधिनकृत्वा पंचम पक्षमाश्रिताः।

कॉक्षन्ति पितरः क्लीष्टा अन्नमप्यन्वहमजलम्।

( पृथ्वी चन्द्रोदये मनुः)

15 दिन पितृपक्ष में कुछ तिल और जल से प्रतिदिन पितरों के नाम और गोत्र का उच्चारण करके जल दान करने से  पूरे संवत तक ( पूरे वर्ष भर ) किसी प्रकार का प्रेत राक्षस, ग्रह आदि की पीड़ा भय नहीं रहता और पितर तर्पण करने वालों की निरंतर रक्षा करते रहे।

प्रत्यहम् पार्वणश्राद्धम् कर्तव्यन्तु महालये।

पितृभ्यस्च जलम देयम् तेन संवत्सरम शुभम्।।

( श्राद्ध कल्प )

यदि कोई मनुष्य पितृपक्ष में तर्पण और श्रद्धा ना कर सके तो केवल थोड़ा सा तिल पितरों के का नाम लेकर पीपल वृक्ष के जड़ में डाल दे तो भी पितृ तृप्त हो जाते हैं। यदि कोई यह भी ना कर सके तो गायों को घास – पैरा देते समय यह कह दे कि यह मेरे पिता के लिए है, यह मेरी मां के लिए है तो भी पिता तृप्त हो जाते हैं। यदि मनुष्य शैय्या में पड़ा हुआ बीमार हो तो केवल अपने हाथों को ऊपर की ओर हिलाकर पितरों का स्मरण कर ले तो भी पितर वर्ष तक उसकी रक्षा करते हैं। पितृपक्ष में दिया गया अन्न, जल शनि की साढ़ेसाती, कालसर्प योग, दुष्ट ग्रहण का प्रकोप सबको नष्ट कर देता है।

पितरौयत्र पूज्यन्ते , तत्र मातामहादSपिः।

देयम् जलम् च तेषान्तु, ग्रहदोषो विनश्यति ।।

इस तरह पितृपक्ष में गया, श्राद्ध और ब्रह्म कापाली के पिंड देने के पश्चात भी प्रतिदिन पितरों को कुछ तिल जल से तर्पण करना चाहिए क्योंकि गया श्राद्ध होने से उनसे हमारे संबंध विच्छेद नहीं होते। जिनके घर पुरुष ना हो उनके यहां कुंवारी कन्याएं तथा विधवा स्त्री तर्पण कर सकती है। अतः परिवार के कल्याण, सुख समृद्धि की वृद्धि, रोगों के नाश, ग्रहों की शांति चाहने वाले लोगों को श्रद्धा पूर्वक यह पितृपक्ष संपादित करना चाहिए।

हिंदू धर्मशास्त्र और मान्यताओं के अनुसार जीवन में तीन ऋण मानव मात्र को चुकाना पड़ता है देवऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण….। जो जीवन भर उनकी आराधना साधना करते रहने से मिटता है। देवऋण पूजा हवन इत्यादि करके तथा ऋषि ऋण ऋषि प्रणीत ग्रंथों का स्वाध्याय पाठ अनुशीलन आदि करके चुकाया जाता है। जहां तक देवता और पितरों के संबंधों का प्रश्न है देवता सम्बद्धानुबद्धी है अर्थात हम उनका यजन करते हैं तो वह हमारी रक्षा करते हैं और वांछित फल देते हैं।

देवानभावयतानेन ते देवा भावयन्नु नः।।

इष्टान्मोगान्हि नौ देवा दास्यन्ते यज्ञ भविताः।।

( श्रीमद् भगवत गीता 11- 12/3 )

किंतु पितर एकांगी स्नेहबद्ध होते हैं। पितरों का सीधा संबंध शरीर से, वंश से और परिवार के सुख-दुख से होता है। जैसे मां यदि स्वयं भी बीमार हो और बालक बीमार हो तो उसका सारा ध्यान बालक की ओर होता है और वह अपने कष्टों का ध्यान ना करते हुए पुत्र की रक्षा और कष्ट निवारण हेतु प्रयासरत रहती है। इसी भांति पितर कुल के सदस्यों की रक्षा, यश की वृद्धि और परिवार के सुख शांति हेतु आशीर्वाद देते हैं और अपनी ओर से देव तुष्टि ,ग्रह शांति का कार्य करते रहते हैं। इसलिए पितरों को वसुरूदादित्य की संज्ञा दी गई है । पिता वसु रूप , पितामह रूद्र रूप और प्रपितामह ( परदादा ) आदित्य (सूर्य) रूपों में वर्णित है।

अशोक वर्मा

  एडव्होकेट उच्च न्यायालय

  सिविल लाइंस जिला न्यायालय के पास

  बिलासपुर  (छत्तीसगढ़ )

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