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“कभी सियासत में मोहब्बत थी, अब मोहब्बत में सियासत है” — धर्म और राजनीति के बदलते समीकरणों पर दीपक पाण्डेय की एक दृष्टि

भारत की राजनीति में एक दौर वह भी था, जब विचारधारा, भावनाएँ और आस्था राजनीति को दिशा देती थीं। लेकिन आज की स्थिति कुछ और है—अब धर्म, जाति, आस्था और यहाँ तक कि करुणा भी, सत्ता की बिसात पर बिछाई जा रही हैं। यही कारण है कि यह कहा जाने लगा है: कभी सियासत में मोहब्बत थी, अब मोहब्बत में सियासत है।”

यह परिभाषा यूँ ही नहीं गढ़ी गई है। यह उस लंबी प्रक्रिया का परिणाम है, जिसमें वामपंथ और कांग्रेस की राजनीति ने सेक्युलरिज्मका एक नया मॉडल रचा—जहाँ हिंदू परंपराओं और मान्यताओं को सार्वजनिक मंचों पर गाली देने वाला ही धर्मनिरपेक्षकहलाता है।

ग़ाज़ा की चिंता, पर बांग्लादेश के हिंदुओं की चुप्पी क्यों?

यह किसी से छिपा नहीं कि कांग्रेस नेतृत्व, विशेषकर सोनिया गांधी, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर संवेदनशीलता प्रकट करते रहे हैं—ग़ाज़ा, इराक, फिलिस्तीन, आदि पर। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह संवेदना सार्वभौमिक होनी चाहिए या चयनित?

बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार, पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की स्थिति, या केरल और बंगाल में हिंदू कार्यकर्ताओं की हत्या—इन पर चुप्पी क्यों? क्या यह अंतरराष्ट्रीय दबाव है या वोट बैंक की राजनीति का मौन समझौता। 

दिल्ली के बटाला हाउस में मारे गए आतंकवादी पर आँसू बहाए जाते हैं, लेकिन उसी ऑपरेशन में शहीद हुए मोहन शर्मा के लिए एक शब्द नहीं निकलता। क्या यह चुनावी रणनीति है या विचारधारा का पतन….? जो हिन्दूओ के खिलाफ रहेगा सार्वजनिक मंच से उनके मान्यता को परम्परा को गाली देगा सेक्युलर वही है । आज गाजा में युद्ध रोकने के लिए माननीया सोनिया गांधी बहुत व्यथित हैं । उनकी बेचैनी इराक इजरायल युद्ध के समय भी इराक को लेकर थी । यकीनन  इससे इंकार नहीं किया जा सकता । गाजा में मानवता कराह रही है बेशक …, पर मैडम क्यों साहस नहीं कर पाती है- बांग्लादेश में हिंदुओं के ऊपर होने वाले अत्याचार के लिए एक शब्द बोलने की कोई तो मजबूरी रहती है ।

हिंदुओं से भावनात्मक रिश्ता और उसका क्षरण

यह कटु सत्य है कि आज से कुछ दशक पहले तक हिंदू समाज भावनात्मक रूप से कांग्रेस से जुड़ा हुआ था। नारा था—जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।”
कांग्रेस का प्रतीक गाय और बछड़ा  रहा करता था। गोवध पर प्रतिबंध कांग्रेस का एजेंडा हुआ करता था। अधिवेशनों की शुरुआत वंदे मातरम् से होती थी।

लेकिन फिर राजनीति ने करवट ली। कांग्रेस ने अपनी हिंदू पहचान को छोड़ दिया, और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण  की ओर रुख किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वह जो शून्यता बनी, उसे जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)  ने भर दिया।

शाहबानो मामला — परिवर्तन का निर्णायक मोड़

1985 में शाहबानो केस  में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने जब मुस्लिम समाज में रोष उत्पन्न किया, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ‘तलाक अधिकार संरक्षण अधिनियम’ पास कर दिया, जिससे न्यायालय का फैसला निष्प्रभावी हो गया। यह तुष्टिकरण की राजनीति की पराकाष्ठा थी।

जनसत्ता की हेडलाइन बनी — “जीतकर भी क्यों हारती है शाहबानो बार-बार….।”
यह वह क्षण था, जब कांग्रेस ने सुधार का रास्ता नहीं, झुकाव और समर्पण की राजनीति को चुना।

फिर आया आरक्षण और पहचान की राजनीति का युग

सच्चर आयोग, रंगनाथ मिश्र रिपोर्ट, वक्फ बोर्ड विस्तार, जामिया में एससी-एसटी कोटे की समाप्ति और मुस्लिम कोटा—इन सभी ने कांग्रेस को उस राह पर धकेल दिया जहाँ वह भारतीय समाज के बहुसंख्यक वर्ग से कटती चली गई।

वहीं, बीजेपी ने इस रिक्त स्थान को भरते हुए बहुसंख्यक जनभावनाओं को प्रतिनिधित्व देना शुरू किया, और कांग्रेस लगातार क्षेत्रीय दलों की बैशाखियों पर निर्भर होती गई।

राजनीति का धर्म से संबंध या धर्म की राजनीति?

कांग्रेस जब तक हिंदू पार्टी थी, तब तक किसी अन्य हिंदू संगठन को अवसर नहीं मिला। लेकिन जैसे ही उसने अपनी हिंदू पहचान छोड़ी, उसकी जमीन खिसकने लगी।

आज की राजनीति में धर्म सिर्फ आस्था नहीं, रणनीति बन चुका है। सत्ता की बिसात पर अब करुणा, संवेदना और न्याय भी वोट बैंक में बदल दिए जाते हैं।

हिंदू समाज अब भी भावनात्मक है, लेकिन अब उसकी भावनाओं का राजनीतिक सौदा नहीं, प्रतिनिधित्व चाहिए।

और इसीलिए, आज की राजनीति पर यह कथन सटीक बैठता है:
कभी सियासत में मोहब्बत थी, अब मोहब्बत में सियासत है…”

 दीपक पाण्डेय,

गैर राजनीतिक विश्लेषक ,बिलासपुर

 

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