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तीन दिन से बाढ़ में फंसा एक बेजुबान..सिस्टम से पूछ रहा..क्या मेरी कोई कीमत नहीं?

 दुर्ग…शिवनाथ नदी का पानी उफान पर है। हर ओर बाढ़ की तबाही है। लेकिन इसी तबाही के बीच एक कोना ऐसा भी है जहाँ से न चीख सुनाई देती है, न कोई पुकार… बस एक मासूम की कराहती आंखें हैं, जो तीन दिनों से उम्मीद लगाए बैठी हैं कि शायद कोई उसे भी बचा ले।

यह कहानी है दुर्ग ज़िले के थनौद गांव की, जहाँ शिवनाथ नदी की तेज़ बाढ़ में एक बेजुबान कुत्ता फंस गया है। वह गांव के एक पुराने ईंट भट्टे के ऊंचे टीले पर बैठा है – भूखा, थका, ठंड से कांपता हुआ… और सबसे बड़ी बात अकेला

स्थानीय लोगों ने बताया कि यह कुत्ता पिछले तीन दिनों से उसी जगह पर है। न वह कहीं जा सकता है, न कोई उसके पास जा पा रहा है। कई बार प्रशासन को सूचित किया गया, लेकिन कोई नहीं आया। एक ग्रामीण की आंखें भर आईं..उसने बताया – “कितनी बार फोन किया… पर शायद एक जानवर की ज़िंदगी उतनी कीमती नहीं जितनी किसी इंसान की।”

आज सुबह प्रशासन ने बाढ़ में फंसे 32 लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला। यह राहत की खबर ज़रूर है, लेकिन सवाल यह भी है – क्या जानवरों की जान का कोई मोल नहीं?
कुत्ता अब भी वहीं है – पानी से घिरा हुआ, ठिठुरता, और हर गुजरती नाव को उम्मीद से देखता हुआ।

यह कोई आम स्ट्रीट डॉग नहीं है अब… यह हमारी संवेदनहीनता का प्रतीक बन चुका है। वह कुछ कह नहीं सकता, पर उसकी आंखों में डर, पीड़ा और भरोसा – सब कुछ साफ़ झलकता है।

ग्रामीण अब खुद उसे बचाने की कोशिश करना चाहते हैं, लेकिन तेज़ बहाव और गहराई ने उन्हें भी विवश कर दिया है।सवाल सिर्फ उस कुत्ते की जान का की नहीं, सवाल है – क्या हम इतने व्यस्त, इतने निर्जीव हो गए हैं कि किसी बेजुबान की चीख भी हमें नहीं सुनाई देती?

आज ज़रूरत है कि प्रशासन केवल ‘आपदा प्रबंधन’ के शब्दों से नहीं, बल्कि वास्तविक करुणा और ज़िम्मेदारी से काम करे। क्योंकि अगर हम बेजुबानों की पीड़ा नहीं समझ पाए, तो इंसानियत का क्या अर्थ रह जाएगा?

 आंखें पूछ रही हैं – मेरी जान की कोई कीमत नहीं?”

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