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क्यों समस्या है छत्तीसगढ़ में मतांतरण….?

छत्तीसगढ़ जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राज्य में धर्मांतरण का विषय आजकल चर्चा और चिंता का केंद्र बन गया है। यह सिर्फ धार्मिक पहचान का प्रश्न नहीं है, बल्कि समाज की आंतरिक कमजोरियों और असमानताओं से भी जुड़ा हुआ है।

हिंदू धर्म को लेकर अक्सर यह बात कही जाती है कि यह जीवन जीने का एक तरीका है, न कि कोई सख्त नियमों में बंधा हुआ धर्म। इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी जाती है—आप जिसे चाहें पूजा कर सकते हैं, और आस्था का रूप भी निजी होता है। हिंदू धर्मग्रंथों में यह नहीं बताया गया है कि अगर आपने यह नहीं किया तो आपको दंड मिलेगा। यह धर्म नैतिकता की बातें करता है—किसी को दुःख न देना, ईश्वर में विश्वास रखना, पर किसी चीज़ को पूर्ण सत्य मानने की बाध्यता नहीं है।

यही वजह है कि हिंदू समाज में मतांतरण को कभी परंपरा या आदान-प्रदान के रूप में नहीं देखा गया। यहाँ “हिंदू” पैदा होते हैं, बने नहीं जाते। और इसी कारण, जो धर्म बदलता है, उसे न समाज में सहज स्वीकार्यता मिलती है और न बराबरी का सम्मान।

धर्मांतरण की समस्या की जड़ें गहरी हैं—आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक रूप से। संयुक्त परिवारों का टूटना, गाँव से शहरों की ओर पलायन, सामाजिक असमानताएँ, जातीय भेदभाव, और भावनात्मक जुड़ाव की कमी ने लोगों को असुरक्षित बना दिया है। ऐसी स्थिति में जब कोई जीवन में सहारा या लाभ की संभावना देखता है—चाहे वह रोजगार हो, शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो या कोई अन्य सुविधा—तो वह अपनी आस्था तक बदलने को तैयार हो जाता है।

छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण विशेषकर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और आदिवासी समुदायों में अधिक हो रहा है। दलित समुदाय, खासकर सतनामी समाज, जिसमें गुरु परंपरा गहराई से जुड़ी हुई है, वहाँ धर्म परिवर्तन लगभग नगण्य है।

वास्तव में, धर्मांतरण का कारण सिर्फ आर्थिक प्रलोभन नहीं है, बल्कि एक मानसिकता भी है—यह सोच कि नया विश्वास शायद कोई नई राह खोल दे। अफ्रीका के कई देश मुस्लिम हो गए, इसका कारण गरीबी और सांस्कृतिक रिक्तता था। छत्तीसगढ़ में गरीबी के साथ-साथ जातीय भेदभाव और अवसरों की कमी लोगों को धर्मांतरण की ओर धकेल रही है।

अंततः, समाज को यह समझना होगा कि अगर हम अपने भीतर की असमानताओं, भेदभाव और सुविधाओं के असमान वितरण को नहीं सुधारेंगे, तो लोग धर्म बदलकर नई पहचान खोजते रहेंगे। यह सिर्फ आस्था की नहीं, व्यवस्था की भी हार होगी।

निदा फ़ाज़ली की एक पंक्ति इस स्थिति पर खूब सटीक बैठती है—
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,

जिसे भी देखना कई बार देखना…”
इसलिए, जब कोई व्यक्ति धर्म बदलता है, तो उसमें सिर्फ धर्म ही नहीं बदलता, कई सामाजिक, आर्थिक और मानसिक परतें भी जुड़ी होती हैं।

दीपक पाण्डेय बिलासपुर

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