भोजली कुमारी ललनाओं का उत्सव – डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा

भारत माता ग्राम वासिनी है, इसलिए गांवों में कुमारियां-कृषि के उत्सव को हरित-पीत रूप देने के लिए भोजली बोती हैं, पूजा कर, गीतों में आराधना कर, फिर विसर्जन कर, अगले वर्ष का आमंत्रण दे जाती है। भोजली या उत्तरांचल की कजली-लोकगीत ही नहीं लोकोत्सव भी है। कुमारी बालाएं प्रभु से प्रार्थना करती हैं कि भूमि पूरी तरह जल गयी हो, जल से भरी हो – भोजली-देवी गंगा की प्रार्थना करती हैं। छत्तीसगढ़ में जल को देवी मानते हैं, गंगा भी जल की देवी है, अतः भोजली को गंगा मानकर अनुष्ठान में अभ्यर्थना करती हैं।
छत्तीसगढ़ में भी धरती की बेटियां भोजली तिहार को बड़े जोर-शोर से मनाती है। वास्तव में यह कुमारियों का उत्सव है, तथापि महिलाएं भी पूरे उल्लास और उत्साह से भोजली त्यौहार मनाती हैं। पुरूष वर्ग भी भोजली सराने (विसर्जन करने) का मेला देखने के लिए जुट जाता है।
श्रावण शुक्ल सप्तमी को मिट्टी तैयार की जाती है, और आठे (अष्टमी) को सप्त अन्न – गेहूं या जौ, मक्का (जोंधरी) उड़द, आदि मिंझरा (मिश्रित) भिगो देती हैं, फिर नवमी को शुभ तिथि में छोटे-छोटे पात्र-टोकरी, चुकिया, परात आदि में मिट्टी के साथ सिकता के मिश्रण में खाद डालकर भोजली बो देती हैं। रेत के मूल में ऊपर राख, खातू, भुरभुरी मिट्टी छिड़ककर, सोने के जल (हरिद्रा जल) से सींचकर, सूर्य प्रकाश से बचाने, उसे अंधेरे कक्ष (अंधियारी खोली) में रख दिया जाता है।
प्रतिदिन बालिकाएं दोनों जून सोनपानी (हल्दी के जल) से सींचती, पूजा अर्चना करतीं और गीतों में अनुष्ठान का आनंद लेती हैं। खेतों में धान की फसल एकदम हरी-हरियाली लहलहाती है, तो घर की ओसारी अंधियारी में चंपकवर्णी -पीली-भोजली-कनक मंजरी की महिमा गाती है। राखी पुन्नी याने रक्षाबंधन के पूर्व में भोजली दाई को राखी पहनाकर, प्रतिपदा पर्व में बालिकाएं, माताएं समवेत स्वर में गाती, झुंड में इठलाती तालाबों या नदियों में भोजली का विसर्जन करती हैं।
भोजली सराने (विसर्जन) की तैयारी में बालिकाएं अपने आंगन में पहले चउॅंक (अल्पना) पूर के उस पर भोजली को प्रतिष्ठापित करती हैं, फिर पूजा कर, घी-गुड़ का होम-धूप देकर नारियल फोड़कर भोजली को सिर पर उठाती हैं। ढिंढोरा पीटा जाता है, चला चला भोजली सराय बर चला, तब बालिकाएं मुखिया के घर में भोजली लेकर एकत्र होती हैं, और फिर सामूहिक रूप से मुखिया द्वारा भोजली की पूजा की जाती है। फिर झुंड में गीतों के मधुर वातावरण में विसर्जन की शोभा-यात्रा निकालती है। विसर्जन के लिए घाट पर पहुंचकर भोजली को पानी ओईच (आचमन) देती हैं, फिर भोजली को उपका (उन्मूलन) देती हैं तथा टोकरी आदि की मिट्टी को पानी में ही बहा देती है। लौटकर रास्ते में, मोहल्ले में लोगों को भोजली देकर जोहार करती है याने यथायोग्य अभिवादन करती है। कुछ महिलाएं भोजली बदती हैं। भोजली बदने के लिए नया लुगरा (साड़ी), नारियल, भोजली भेंटकर परस्पर गले मिलती हैं, और आपस में एक दूसरे को भोजली ही कहकर संबोधित करती हैं। भोजली का नाम लेकर नहीं पुकारा जाता। अपने से बड़े लोगों को भोजली देकर जोहार करना पड़ता है, याने प्रणाम करना पड़ता है। भोजली देने पर आशीष के साथ वस़्त्र या मुद्रा की प्राप्ति होती है। एकाध भोजली की टोकरी हलषष्ठी पूजा के लिए सुरक्षित रखी जाती है। भोजली गीत इस प्रकार है – ‘हे भोजली देवी आप देवी हैं, आप गंगा है। जिस प्रकार गंगा की ऊंची लहरें तरंगित होती हैं, उसी प्रकार जल से भोजली देवी के आठों अंग पूरी तरह सरोबार हो जाते हैं। वर्षा के कारण नदियों में अच्छी बाढ़ आई, और सब कुड़ा-करकट बह गया, इधर हमारी भोजली देवी के स्वर्ण परिधान का आंचल फहरा रहा है। भोजली दाई सोन पानी पीकर गन्ने के समान बढ़ती जाती है, बिना सेवा के भोजली की उन्नति रूक जाती है। जिस प्रकार पानी के बाहर मछली तड़पती है, उसी प्रकार पूजा के अभाव में भोजली तरसती है।
अंत में बालिकाएं गाती है –
घर की छोटी से हंसिया की बेंट भी जल भुनकर काली पड़ गई है, हम अगले साल जीवित रहीं, तो पुनः भेंट होगी –
नान मुन हंसिया के जरहा हे बेंट ।
जियत जागत रहिबो भोजली त हो जाही भेंट।।
बिदाई की वेदना भी है, मिलन की आशा भी है, जीने की अभिलाषा भी है, गीत गाने की आकांक्षा भी है, अभिनंदन की अभीप्सा भी, पुण्य प्राप्ति की प्रत्याशा भी, और सखी भोजली की भलाई की भावना भी।
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