बाढ़ की चपेट में मस्तूरी का सोन गांव डूबा… शासन सो गया ! 60 घर जलमग्न, लीलागर की बाढ़ में लहराता प्रशासनिक झूठ”

बिलासपुर. गर बाढ़ में डूबना नियति है, तो प्रशासन की संवेदनहीनता सजा है!””सोन गांव मदद नहीं मांग रहा, वो अपने होने की गुहार लगा रहा है!”।
जी हा बिलासपुर जिले का सोन गांव, एससी और एसटी समुदाय की बड़ी आबादी को समेटे है,। इस समय पूरी तरह से जलमग्न है। और प्रशासन?
घोर चुप्पी साधे बैठा है।पिछले 72 घंटों की लगातार बारिश ने गांव को किसी डूबते टापू में बदल दिया है।लीलागर नदी का जलस्तर इस कदर बढ़ा कि किसी को कुछ सोचने-समझने का भी मौका नहीं मिला जिसके चलते 60 से 70 घर पूरी तरह बाढ़ की चपेट में हैं। लोग मदद की लगातार गुहार लगा रहे हैं लेकिन आवाज जिला प्रशासन तक नहीं पहुंच रही है
अभूतपूर्व बारिश, लेकिन कोई प्रशासन नहीं
स्थानीय लोगों ने बताया —“पिछले 10 से 15 साल में इस तरह का कहर कभी नहीं देखा।”गांव की सरपंच तारा साहू लगातार मस्तूरी तहसील, जिला कार्यालय, आपदा प्रबंधन, SDM, और राजस्व अधिकारियों को फोन लगाती ररही लेकिन हर बार सिर्फ घंटी बजती रही — और जवाब में आया सन्नाटा।
अदृश्य प्रशासन और जलती भूख
स्थानीय सरपंच ने बताया की लीला कर नदी के प्रकोप के चलते अचानक गांव में पानी पानी भर गया। आकस्मिक जल भराव से गांव में त्राहि त्राहि मच गई । यह सच है कि लीलगर नदी के प्रकोप का हर बार सुन गांव को सामना करना पड़ता है । लेकिन इतना भयंकर प्रकोप होगा इसकी कल्पना हम लोगों ने नहीं किया था । घरों में पानी भर जाने के कारण बच्चों के पास दूध नहीं है ।
महिलाओं के पास रोटी नहीं है । यदि कहीं से कुछ मिल जाए तो पकाने के लिए चूल्हा नहीं है। और सबसे बड़ी बात की हम गरीब गांव वासियों के लिए सरकार के पास वक्त नहीं है। समझ नहीं आ रहा है कि हम अब कहां जाएं किसके सामने हाथ फैलाए और हमें रात मिल जाए।
परिवारों के पास चूल्हा नहीं —
ग्रामीणों ने भारी नुकसान का जिक्र करते हुए बताया कि घरों में पानी भर जाने के कारण अब हमारे पास राशन नहीं है पीने का पानी भी नहीं है। राहत कार्य कब शुरू होगा इसकी भी जानकारी नहीं है। हमने अधिकारियों से संपर्क का प्रयास किया शायद उनके घर में भी पानी भरा है इसलिए उन्होंने हमारा फोन नहीं उठाया। समझ में नहीं आ रहा है कि अब हम क्या करें। बाबूजी देश के हमें अभी भी राहत बचाव कार्य की उम्मीद है ।
ग्रामीणों ने कहा कि अभी तो फिलहाल हम पेट की आग से चल रहे हैं लेकिन चिंता अब महामारी की भी सताने लगी है। कीचड़, गंदगी और गंदे पानी में सैकड़ों लोग फंसे हैं। लेकिन प्रशासन के कागजों में शायद सब कुछ “नियंत्रण में” है। और शायद बचाव कार्य भी चल रहा है।
रातों की नींद लील गई लीलागर
जिस लीलाधग नदी को कभी गांव की जीवनरेखा कहा जाता था, वह अब गांव को लील रही है। गांव का संपर्क चारों तरफ से टूट चुका है। च खेत डूब चुके हैं। बाड़े बिखर चुके हैं।कई मकान ढह गए, फिर भी कोई राजस्व निरीक्षक, कोई बीडीओ, कोई राहत वाहन अब तक नहीं आया है ।
प्रशासन की योजनाएं: सिर्फ कागज़ों में
मानसून पूर्व समीक्षा बैठकों में कहां गया था कि मानसून के दौरान हर विपरीत परिस्थितियों से दो-चार करने के लिए प्रशासन पूरी तरह से मुस्तैद है । “राहत टीमें चौकस हैं”, “बाढ़ से निपटने की पूरी योजना है” —अब वही झूठी फाइलें, पानी में बह चुकी हैं।
“सोन गांव को भूख ने नहीं, व्यवस्था की बर्बरता ने मारा है।”
जनहित का सवाल
क्या SC-ST जनहित का सवा बहुल गांव की जान की कीमत कम है?जब फोन नहीं उठते, तो आपदा प्रबंधन की हेल्पलाइन किसके लिए है?क्या “पलायन रोकने” की नीति सिर्फ भाषणों में जिंदा है?क्यों नहीं बाढ़ संभावित गांवों में पहले से राहत दल तैनात किए गए?
यह चेतावनी है, न कि याचना
सोन गांव इस समय इतिहास में नहीं, बर्बादी में दर्ज हो रहा है।अगर शासन-प्रशासन का मौन यही रहा —तो ये सिर्फ एक गांव की कहानी नहीं रहेगी, बल्किछत्तीसगढ़ की व्यवस्था पर सवालिया निशान बन जाएगी।सरकार से निवेदन नहीं — अब जवाब चाहिए।