Chhattisgarh

CG NEWS:विश्रामपुर में ठेका श्रमिकों का शोषण ,कोल इंडिया की नाकामी और जागीरदारी प्रथा की वापसी

CG NEWS:बिश्रामपुर, छत्तीसगढ़ (मनीष जायसवाल) । संयुक्त कोयला मजदूर संघ (एटक) ने बिश्रामपुर क्षेत्र की केतकी भूमिगत खदान में ठेका श्रमिकों के साथ हो रहे आर्थिक शोषण के खिलाफ क्रमिक भूख हड़ताल और आमरण अनशन की चेतावनी दी है। यह खदान देश की पहली एमडीओ (माइन डेवलपर एंड ऑपरेटर) मॉडल वाली खदान है, लेकिन यहां के श्रमिकों की स्थिति बेहद दयनीय है। एटक के क्षेत्रीय सचिव कामरेड पंकज कुमार गर्ग ने बताया कि ठेका श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी, असुरक्षित कार्य स्थितियों और अनुचित वेतन कटौती का सामना करना पड़ रहा है। केतकी खदान में सुरक्षा प्रहरी जैसे कर्मचारियों को 8 घंटे की ड्यूटी के लिए निर्धारित हाई पावर कमेटी (एचपीसी) वेतन के बजाय 12 घंटे काम करवाया जा रहा है, और बदले में उन्हें मात्र 12 से 14 हजार रुपये मासिक वेतन मिल रहा है।

श्रमिकों का आरोप है कि उनके वेतन का आधा हिस्सा ठेकेदारों के द्वारा वापस ले लिया जाता है, भले ही कागजों पर पूरा वेतन दिखाया जाता हो। कोल इंडिया की ओर से घोषित बोनस से भी कई श्रमिकों को वंचित रखा गया है।इसके अलावा, लागत कम करने के लिए ठेकेदार बाहर से अकुशल श्रमिकों को लाकर खदान के बैरकों में रख रहे हैं और उन्हें न्यूनतम मजदूरी पर काम करने को मजबूर किया जा रहा है। यह न केवल श्रमिकों के अधिकारों का हनन है, बल्कि कोल इंडिया की नवरत्न कंपनी की छवि और दक्षिण पूर्वी कोयला क्षेत्र लिमिटेड (एसईसीएल) प्रबंधन की कार्यप्रणाली पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है।

कर्मचारी संघ के आरोप से लग रहा है कि एसईसीएल प्रबंधन की निष्क्रियता से जागीर दारी प्रथा की वापसी हो रही है..! 1970 के दशक में भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण करके श्रमिकों के शोषण को खत्म करने, ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने और वैज्ञानिक खनन को बढ़ावा देने के लिए किया था। लेकिन आज, 78 साल बाद, क्या हम उसी कोयला खदानों की जागीर दारी प्रथा की ओर लौट रहे हैं..?

एटा के आरोप अगर सही है तो ठेका श्रमिकों की स्थिति 1972 से पहले की स्थिति से अलग नहीं दिखती, जब निजी मालिक खदानों को अपनी जागीर समझकर मजदूरों का शोषण करते थे।कर्मचारी संगठन को आंदोलन करना पड़ रहा है तो इसके लिए एसईसीएल प्रबंधन की निष्क्रियता और ठेकेदारों की मनमानी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है। मजदूर संगठन इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, लेकिन छोटे-मोटे आंदोलनों का कोई खास असर नहीं हो रहा। सवाल यह है कि क्या प्रबंधन ठेकेदारों के दबाव में चुप है, या उनकी निष्क्रियता इस शोषण को बढ़ावा दे रही है? जांच एजेंसियों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जा रहा, जबकि यह मामला श्रम कानूनों के उल्लंघन और मानवाधिकार हनन का स्पष्ट उदाहरण है?

एक ओर एसईसीएल अपने स्थायी कर्मचारियों के लिए आवास, अस्पताल, स्वच्छ पेयजल और सुरक्षा मानकों का पालन करती है। लेकिन ठेका श्रमिकों के साथ यह भेदभाव क्यों ? उनकी मेहनत का आधा हिस्सा ठेकेदारों की जेब में जा रहा है। यह कैसा सिस्टम है, जो एक ओर नवरत्न कंपनी की चमक दिखाता है और दूसरी ओर श्रमिकों को गुलामी की जंजीरों में जकड़ता है…? केंद्र और राज्य सरकारें ठेका श्रमिकों का शोषण हो ऐसी तो नीतियां नहीं बनाई है…!यह पूरी तरह एसईसीएल प्रबंधन की विफलता है, जो श्रम कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर पा रहा। ठेकेदार खदानों को अपनी जागीर समझकर मजदूरों का शोषण कर रहे हैं, और प्रबंधन मूकदर्शक बना हुआ है।

एटक जैसे मजदूर संगठन इस जागीरदारी प्रथा के खिलाफ लगातार आवाज उठा रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज को दबाने की कोशिश हो रही है। सवाल यह है कि कब तक ये छोटे-मोटे आंदोलन चलते रहेंगे..? कब तक ठेका श्रमिक अपनी मेहनत का आधा हिस्सा ठेकेदारों को सौंपते रहेंगे..? यह स्थिति न केवल एसईसीएल की कार्य शैली पर, बल्कि पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े कर रही है।

इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण का सपना मजदूरों के कल्याण और देश की ऊर्जा आत्मनिर्भरता के लिए देखा था। लेकिन आज, केतकी खदान जैसे उदाहरण इस सपने को चूर-चूर करते दिख रहे हैं। ठेका श्रमिकों का शोषण और प्रबंधन की निष्क्रियता यह साबित करती है कि राष्ट्रीयकरण का मकसद कहीं न कहीं अधूरा रह गया है।

अब समय है कि कोल इंडिया और एसईसीएल प्रबंधन जागे, जांच एजेंसियां इस शोषण की गहराई तक जाए, और ठेका श्रमिकों को उनका हक मिले। यदि यह स्थिति नहीं सुधरी, तो देश की आजादी के 78 साल बाद भी हम मजदूरों को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त नहीं कर पाएंगे। क्या यही था राष्ट्रीयकरण का मकसद…? यह सवाल हर उस व्यक्ति को सोचने पर मजबूर करता है, जो देश में सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात करता है।

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